चराग़-ए-ज़ीस्त सर-ए-रहगुज़र है कितनी देर ये रौशनी भी शरीक-ए-सफ़र है कितनी देर फ़रार दर्द से ग़म से मफ़र है कितनी देर फ़सील-ए-शब ये चराग़-ए-सहर है कितनी देर सवाद-ए-शाम में आईने कहते जाते हैं तिरा ये फ़न भी ऐ आईना-गर है कितनी देर ज़मीं पुकार रही है ऐ बर्ग-ए-ख़ुश्क तुझे हवा के रक़्स में तू है मगर है कितनी देर रगों में मौज-ए-हरारत नज़र में बर्क़ की रौ दरून-ए-जिस्म लहू का भँवर है कितनी देर हमें तो शब के समुंदर में ग़र्क़ रहना है जमाल-ए-सुब्ह-ए-तरब मो'तबर है कितनी देर रमीदा वक़्त के मंज़र बदलते रहते हैं हवा का क़हर भी सूखे शजर है कितनी देर मिरी हयात भी मुझ से बिछड़ने वाली तिरा वजूद भी पेश-ए-नज़र है कितनी देर किसी भी मोड़ पे मुझ से जुदा तो होना है मिरा जुनून मिरा हम-सफ़र है कितनी देर