यूँ तो उस की वुसअ'तों में क्या नहीं वो समुंदर है मगर गहरा नहीं घट गया सब ज़ोर-ए-सैलाब-ए-जुनूँ कर्ब का दरिया मगर उतरा नहीं दूसरों से निस्बतों का क्या सवाल मेरा ख़ुद से भी कोई रिश्ता नहीं देखता हूँ जो वो करता हूँ रक़म मैं ख़िलाफ़-ए-सानेहा लिखता नहीं मैं समुंदर वो सुलगता दश्त है मेरे जैसा मेरा हम-साया नहीं हम ज़मीं वाले ही शर-अंगेज़ हैं आसमाँ से कोई शर उतरा नहीं क़ातिलो ये मुंसिफ़ों का शहर है ख़ून महँगा है यहाँ सस्ता नहीं मेरे जिस्म-ओ-जाँ पे उस का इख़्तियार मैं ने जिस का अक्स भी देखा नहीं मुझ पे भी उतरा सहीफ़ा दर्द का मैं भी तुझ जैसा हूँ तू तन्हा नहीं