चराग़ जो भी जला है हवा के साए में सदा रहा है फ़रोज़ाँ दुआ के साए में हमें मिटा न सकेगी ये गर्दिश-ए-दौराँ अज़ल से हम हैं अता-ए-ख़ुदा के साए में फ़रोग़-ए-सुब्ह का आलम है वज्ह-ए-मायूसी उजाले सहमे हैं किस बद-दुआ' के साए में कभी तो होगा बहारों का इस तरफ़ को नुज़ूल ख़िज़ाँ-रसीदा चमन है हवा के साए में मिली न तौबा की मोहलत तमाम उम्र कभी हमारी ज़िंदगी गुज़री ख़ता के साए में हिजाब-ए-नाला-ए-शब मुंतशिर रहे कब तक ख़मोशियाँ भी निहाँ हैं सदा के साए में सऊबतों से गुरेज़ाँ हो किस लिए ऐ 'ज़फ़र' वजूद अपना है जब कि क़ज़ा के साए में