चर्चा इस एक बात का दश्त-ओ-दमन में था किस का लतीफ़ हाथ ज़ुहूर-ए-चमन में था काँटा था हुस्न-ए-ज़ात का करता न क्यूँ ख़लिश यक-गूना हज़-ओ-लुत्फ़ भी लेकिन चुभन में था उस शख़्स के ज़मीर ने कर ली थी ख़ुद-कुशी पौदा हवस का जिस की तमन्ना के बन में था सय्यारा-ए-गुनाह का साया जिधर पड़ा तारे सियाह-पोश थे सूरज गहन में था यलग़ार कर रही थी मोज़ाहिम पे दम-ब-दम किस दर्जा गर्म ख़ून अना के बदन में था गो मेरी बात पर उसे 'हादी' यक़ीं तो था शक-ओ-गुमाँ का रंग भी उस के चलन में था