फ़लक ने भेजे हैं क्या जाने किस वसीले से लहू के बहर में भी कुछ सदफ़ हैं नीले से अभी तो क़ाफ़िला-ए-बाद सब्ज़ राह में है इसी लिए तो हैं अश्जार-ए-दश्त पीले से जो मेरे साथ है सदियों से मिस्ल-ए-अक्स-ए-बहार ख़बर नहीं कि है वो शख़्स किस क़बीले से पड़ा है कब से सियह-पोश मेरा दश्त-ए-बदन चराग़ इस में जला दे किसी भी हीले से क़यास कहता है उन के अक़ब में है सूरज चमक रहे हैं उफ़क़ पर जो ज़र्द टीले से है लम्स-ए-आब से महरूम दश्त-ए-ख़ाक-ओ-हवा न जाने किस लिए ज़र्रात फिर हैं गीले से रगों में आज भी रौशन हैं सुर्ख़-ओ-ज़र्द चराग़ अजीब शय थे वो इशरत बदन नशीले से