चश्म-ए-नम से देखता है क्यों मिरी चश्म-ए-पुर-आब तेरे दिल की बर्फ़ ने देखा नहीं है आफ़्ताब यूँ गुज़रती जा रही है ज़िंदगी की दोपहर दिल में इक उम्मीद-ए-काज़िब और आँखों में सराब ख़ुद-सरी उस तुंद-ख़ू की जाते जाते जाएगी एक ही दिन में कभी आता नहीं है इंक़लाब तुम ने हम को क्या दिया और हम से तुम को क्या मिला मिल गई फ़ुर्सत कभी तो ये भी कर लेंगे हिसाब हम को अपना शहर याद आता न शायद इस क़दर क्या करें रहता है तेरे शहर का मौसम ख़राब एक ख़त लिख कर समझना फ़र्ज़ पूरा हो गया वाह 'बासिर' जी तुम्हारा भी नहीं कोई जवाब