चेहरा कोई भी आँख में ठहरा न फिर कभी दिल ने किसी भी शख़्स को चाहा न फिर कभी रूठा ज़रा सी बात पे उठ कर चला गया ऐसा गया कि लौट के आया न फिर कभी कुछ यूँ मिला तपाक से बस इश्क़ हो गया वो अजनबी था कौन था सोचा न फिर कभी उस ने बतौर तोहफ़ा दिया था लिबास-ए-हिज्र पहना जो एक बार उतारा न फिर कभी देखे ज़ईफ़ काँधों पे मेहनत के जब निशाँ बच्चों ने कुछ भी बाप से माँगा न फिर कभी दौलत मिली तो छिन गई एहसास की क़बा उस ने मिरा मिज़ाज भी पूछा न फिर कभी 'नाज़िश' गुज़र चुका था हद-ए-ए'तिदाल से जाने कहाँ गया उसे देखा न फिर कभी