चेहरे से नुमायाँ है एक एक अदा ग़म की इंसाँ जिसे कहते हैं तस्वीर है मातम की क्यों हम को डराते हो आशोब-ए-जहन्नुम से दुनिया भी तो आख़िर है इक शक्ल जहन्नुम की मजबूरी-ओ-माज़ूरी महरूमी-ओ-नाकामी आख़िर कोई हद भी है इस सिलसिला-ए-ग़म की हर आन मुक़ाबिल है ये महर-ए-दरख़्शाँ के जुरअत तो कोई देखे इक क़तरा-ए-शबनम की जन्नत से निकल कर फिर जन्नत न मिली उस को क्या क्या अभी लिक्खा है तक़दीर में आदम की दरकार है गेती को फिर ताज़ा लहू शायद सुर्ख़ी यही कहती है अफ़साना-ए-आलम की गिर्दाब में ऐ 'जौहर' ये किस का सफ़ीना है मौजों के तलातुम में आवाज़ है मातम की