ग़म की आग़ोश में जो पलते हैं वही दुनिया का रुख़ बदलते हैं ख़ार तो क्या हैं हम गुलों से भी अपना दामन बचा के चलते हैं इन्ही ख़ामोश सी फ़ज़ाओं में कितने तूफ़ान हैं जो पलते हैं लाख काँटे बिछे हों राहों में चलने वाले ज़रूर चलते हैं मंज़िलें चूमती हैं उन के क़दम आप जो अपनी राह चलते हैं हैं वही अस्ल में ज़माना-शनास जो ज़माने के साथ चलते हैं उन को मिलती है ज़िंदगी-ए-दवाम ठोकरें खा के जो सँभलते हैं शो'बदे देख चश्म-ए-साक़ी के मय छलकती है जाम चलते हैं ख़ौफ़ से रहज़नों के ऐ 'जौहर' हम कहीं रास्ता बदलते हैं