छेड़े न गुल को मौज-ए-नसीम-ए-सहर अभी अच्छे हैं नोक-ए-ख़ार से तार-ए-नज़र अभी रौशन हुआ है आज शब-ए-ज़िंदगी का ग़म लिल्लाह मत बुझाओ चराग़-ए-सहर अभी आसूदा-काम क्या हो मिरा ज़ौक़-ए-बंदगी पाया नहीं जबीं ने कोई संग-ए-दर अभी इंसानियत के जौहर-ए-यकता को क्या कहूँ मक़्सूद ज़िंदगी का है तहसील-ए-ज़र अभी आसूदगी-ए-ज़ीस्त का इम्काँ नहीं हनूज़ है ख़ैर से जिदाल पे आमादा शर अभी किस तरह वो सुनेंगे शब-ए-ग़म की कैफ़ियत ना-आश्ना-ए-शाम है उन की सहर अभी मैं कजरवी पे क़ाफ़िला वालों को क्या कहूँ आया नहीं है राह पे ख़ुद राहबर अभी 'नातिक़' जमाल-ए-दोस्त नज़र आए दफ़अ'तन पर्दा तकल्लुफ़ात का उठ जाए गर अभी