छोड़ दे कर्ब-ए-अना मौजा-ए-पुर-ख़म बनना ज़िंदगी सीख गई गेसू-ए-बरहम बनना क्या कोई और तसर्रुफ़ न था उस का मुमकिन कैसी मिट्टी के मुक़द्दर में था आदम बनना हाँ ख़मीर एक ही दरकार है दोनों के लिए चश्म-ए-जानाँ हो कि पैमाना-ए-ज़मज़म बनना मुद्दई मरहम-ए-हर-ज़ख़्म के होने वाले आ गया रास तुझे क्या ग़म-ए-आलम बनना हर सँवरती हुई तक़दीर है माथे पे शिकन हर उभरती हुई तस्वीर को मुबहम बनना और भी दहके रहो दहके रहो दहके रहो आ ही जाएगा कभी फूल पे शबनम बनना क्यों मुझे याद दिलाता है अज़ल के दिन की मेरी सूरत का तिरे ज़ेहन में कम-कम बनना हर तबस्सुम रहा मरहून-ए-फ़ुग़ाँ का 'हैरत' हर मसर्रत को पड़ा बार-गह-ए-ग़म बनना