करिश्मा क्या न हुआ बात कौन सी न हुई मगर चराग़ तले रौशनी कभी न हुई कोई भी चूल तो सीधी नहीं मिली उस की तिरा मिज़ाज हुआ बीसवीं सदी न हुई वो प्यास थी कि हम अपना लहू भी पी जाते ये इत्तिफ़ाक़ था उस सम्त फ़िक्र ही न हुई जो काम हाथ में हम ने लिया सिरे न चढ़ा जो बात सोच के तुम हँस दिए कभी न हुई सलाम-ए-शौक़ हर इक रात की ज़बान पे था शरीक-ए-हाल मगर कोई रात भी न हुई निगल गया उसे मेरा मिज़ाज-ए-तीरा-शबी वो चाँद ही था मगर उस से चाँदनी न हुई उस आख़िरी तग-ओ-दौ का भी हश्र देख लिया ख़ुशी से मिल के भी 'हैरत' कोई ख़ुशी न हुई