नज़र जो आता है बाहर में कब वो अंदर हूँ मैं आदमी हूँ कहाँ आदमी का पैकर हूँ रहा जो भीड़ में भी मुश्फ़िक़ों की सर-अफ़राज़ ख़ुदा-गवाह में वैसा ही एक मसदर हूँ सफ़ीना कोई सलामत न रह सकेगा अब क़सम-ख़ुदा-की मैं बिफरा हुआ समुंदर हूँ ये और बात कि तुम को मैं याद आ न सका वगर्ना आज भी महफ़िल में हर ज़बाँ पर हूँ थी मेरी ज़ात कभी काएनात का मेहवर हिसार-ए-ज़ात में लेकिन मैं आज शश्दर हूँ दिलों के बंद दरीचे भी जिस से खुल जाएँ जो पढ़ सको तो पढ़े जाओ मैं वो मंतर हूँ जो पढ़ सके न मिरा चेहरा भी वो ख़ुद-बीं तुम जो दर्द लम्हों का समझे मैं वो क़लंदर हूँ