चिराग़-ए-दर्द कि शम-ए-तरब पुकारती है इक आग सी लब-ए-दरिया-ए-शब पुकारती है अदू से जान बच्ची है न दोस्त बिछड़े हैं ये शाम-ए-गिर्या हमें बे-सबब पुकारती है चराग़-ए-शौक़ पे रह रह के नूर आता है हवा ब-तर्ज़-ए-रुख़-ओ-चश्म-ओ-लब पुकारती है शहीद-ए-आब-ओ-नमक हैं सो बढ़ते जाते हैं शिकस्त ओ फ़तह पियादों को कब पुकारती है सदाएँ दे के बुलाती है शाह-बानू-ए-शहर फ़क़ीर जिस के हैं देखें वो कब पुकारती है मैं जैसे दिन की तब-ओ-ताब से परेशाँ हूँ ब-वक़्त-ए-शाम ख़ुशी इक अजब पुकारती है हम ऐसे कौन अनोखे तुलू'अ होते हैं जो हम को देख के दुनिया ग़ज़ब पुकारती है