फ़सील-ए-सब्र में रौज़न बनाना चाहती है सिपाह-ए-तैश मिरे दिल को ढाना चाहती है लिपट लिपट के शजर को लुभाना चाहती है हर एक बेल मोहब्बत जताना चाहती है रियाल-ए-ख़्वाब लुटाती है दोनों हाथों से अमीर-ए-शौक़ मुझे आज़माना चाहती है मिरा ही सीना कुशादा है चाहतों के तईं तुफ़ंग-ए-दर्द मिरा ही निशाना चाहती है मैं अपने आप को भी देखने से क़ासिर हूँ ये शाम-ए-हिज्र मुझे क्या दिखाना चाहती है खुला कि साहिल-ए-दरिया पे मैं पहुँच ही गया तो ये अना मुझे सहरा में लाना चाहती है नुमू को रोक क़लम को लगाम दे 'अरशद' कि ये ग़ज़ल तिरे पर्दे उठाना चाहती है