चोट खाई हो जिस ने उल्फ़त की क्या करे बात वो मसर्रत की चार दिन हँस के उम्र भर रोना दास्ताँ मुख़्तसर है उल्फ़त की एक धोका है ख़ुद-फ़रेबी है आरज़ू इस जहाँ में राहत की आदमी आदमी का दुश्मन है उफ़ ये तज़लील आदमियत की शोख़ ऐसा बना दिया तुम को ये भी सनअ'त है इक मशिय्यत की काश मिट जाएँ कू-ए-जानाँ में हम को ख़्वाहिश नहीं है जन्नत की दिल जलाने पे भी न दूर हुई तीरगी ऐ 'नरेश' फ़ुर्क़त की