सुन सुन के चुप हैं ताना-ए-अग़्यार क्या करें मजबूर हैं वफ़ा के परस्तार क्या करें रोएँ लहू न दीदा-ए-ख़ूँ-बार क्या करें मजरूह जब हो इश्क़ का पिंदार क्या करें इज़हार-ए-हक़ के वास्ते मंसूर अब कहाँ बातिल-परस्त हौसला-ए-दार क्या करें हो जाए शश-जिहत न कहीं ये धुआँ धुआँ जोश-ए-जुनूँ में आह-ए-शरर-बार क्या करें साक़ी ये तिश्नगी सर-ए-मय-ख़ाना ता-ब-कै जाम-ओ-सुबू न तोड़ें तो मय-ख़्वार क्या करें जब आस्तीन-ए-शैख़-ए-हरम ग़र्क़-ए-बादा हो लोग एहतिराम-ए-जुब्बा-ओ-दस्तार क्या करें हम 'फ़ख़्र' सरकशों के न आगे कभी झुके रखते हैं इक तबीअ'त-ए-ख़ुद्दार क्या करें