रह-ए-वफ़ा से मैं इक गाम भी हटा तो नहीं लहूलुहान हुआ हूँ मगर डरा तो नहीं नज़र में शाइबा-ए-ख़ौफ़ किस लिए आए ये सैल-ए-जब्र हुजूम-ए-बरहना-पा तो नहीं खिंचाव होता है महसूस ख़ूँ के क़तरों में ये रूह-ए-अस्र कहीं रूह-ए-कर्बला तो नहीं अजब तनाव है माहौल में कहें किस से कहीं पे आज कोई हादसा हुआ तो नहीं लबों पे हर्फ़-ए-वफ़ा है तो फिर निगाहों में ये ख़ौफ़ क्यूँ हो कहीं कोई देखता तो नहीं