चोट खाता हूँ मुस्कुराता हूँ दर्द-ए-उल्फ़त मगर छुपाता हूँ उन के आने का आज वा'दा है आरज़ूओं का घर सजाता हूँ सेहन-ए-गुलशन में कुछ उजाला हो आशियाँ इस लिए जलाता हूँ कारगर हो सकें न तदबीरें अब मुक़द्दर को आज़माता हूँ जिस जगह भी गुज़र हो वहशत में इक न इक नक़्श छोड़ जाता हूँ मैं हूँ 'अंजुम' ज़मीन पर लेकिन आसमाँ पर भी जगमगाता हूँ