चुने हैं बरसों दयार-ए-फ़िक्र-ओ-नज़र से शीशे लिपट गए हैं ख़याल के बाम-ओ-दर से शीशे वो बे-ख़बर है कि उस की दहलीज़ तप रही है पिघल रहे हैं तमाज़त-ए-संग-ए-दर से शीशे किसी की आँखों में अब भी एहसास-ए-तिश्नगी है छलक रहे हैं किसी के अक्स-ए-नज़र से शीशे सुना है अब उस के पास पत्थर नहीं बचे हैं निकल ही आएँगे कुछ न कुछ मेरे घर से शीशे ग़ज़ल का कुंदन सा रूप फ़न की असास चाहे चटख़ रहे हैं जराहत-ए-बे-हुनर से शीशे लहू-लहू-उँगलियों में लर्ज़ा नहीं है 'नक़वी' लरज़ रहे हैं फ़िगार हाथों के डर से शीशे