धूप ही धूप है जिस सम्त उठाएँ आँखें अब सुलगती हुई बीनाई बचाएँ आँखें मैं जो आईना भी देखूँ तो मुख़ालिफ़ से मिलूँ आप जो देखना चाहें वो दिखाएँ आँखें उँगलियाँ कैसे कटीं कैसे ज़बाँ गंग हुई अब ये रूदाद ज़माने को सुनाएँ आँखें जिस क़दर रंग भी हैं दायरा-ए-इम्काँ में इतने रंगों की बदलती हैं क़बाएँ आँखें ये न हो कोई अंधेरे के मुक़ाबिल न रहे आओ बुझती हुई आँखों से जलाएँ आँखें उस ने जाते हुए मुड़ कर भी न देखा 'नक़वी' दूर तक देती रहीं जिस को सदाएँ आँखें