क्यूँकर ये तुफ़-ए-अश्क से मिज़्गाँ में लगी आग शबनम से कहीं भी है नियस्ताँ में लगी आग न उस से धुआँ निकले है न शो'ला उठे है ये तुर्फ़ा हमारे दिल-ए-नालाँ में लगी आग आतिश जो हमारे तन-ए-पुर-दाग़ की भड़की दामन से बुझाई तो गरेबाँ में लगी आग घर तू ने रक़ीबों का न ऐ आह जलाया फिर क्या जो मिरे कुलबा-ए-इहजां में लगी आग शाख़ें शजर-ए-बीद से आहू ने रगड़ कर वो शो'ला निकाला कि बयाबाँ में लगी आग तासीर तिरी देख ली ऐ आह-ए-शरर-बार इक दिन न कभी गुम्बद-ए-गर्दां में लगी आग अल्लाह-रे गर्मी-ए-मय अंगूर की 'ग़ाफ़िल' इक जाम को पीते ही दिल-ओ-जाँ में लगी आग