दाद-ओ-दहिश का आप की ख़ूगर नहीं हूँ मैं बे-साख़्ता सुख़न हूँ मुक़र्रर नहीं हूँ मैं तारीफ़ तेरे हुस्न की आती है ग़ैब से मेरे क़लम के साथ तो यकसर नहीं हूँ मैं मसरूफ़ियत का मुझ पे यूँ हमला हुआ कि अब ख़ुद अपने आप को भी मयस्सर नहीं हूँ मैं बंदे तू अंधी दुनिया में है किस को ढूँढता अन्दर से मुझ को ढूँड कि बाहर नहीं हूँ मैं तू भी कभी वहाँ से मिरा हाल-चाल पूछ हर बार तेरे बाप का नौकर नहीं हूँ मैं सोते हैं एक साथ ही मैं और इज़्तिराब आएगी नींद जिस में वो बिस्तर नहीं हूँ मैं तू सर से ले के पाँव ता पूरी ग़ज़ल है और तेरे रदीफ़ के भी बराबर नहीं हूँ मैं