दहर के अंधे कुएँ में कस के आवाज़ा लगा कोई पत्थर फेंक कर पानी का अंदाज़ा लगा ज़ेहन में सोचों का सूरज बर्फ़ की सूरत न रख कोहर के दीवार-ओ-दर पर धूप का ग़ाज़ा लगा रात भी अब जा रही है अपनी मंज़िल की तरफ़ किस की धुन में जागता है घर का दरवाज़ा लगा काँच के बर्तन में जैसे सुर्ख़ काग़ज़ का गुलाब वो मुझे इतना ही अच्छा और तर-ओ-ताज़ा लगा प्यार करने भी न पाया था कि रुस्वाई मिली जुर्म से पहले ही मुझ को संग-ए-ख़म्याज़ा लगा शहर की सड़कों पर अंधी रात के पिछले-पहर मेरा ही साया मुझे रंगों का शीराज़ा लगा जाने रहता है कहाँ 'इक़बाल-साजिद' आज कल रात दिन देखा है उस के घर का दरवाज़ा लगा