दम अजनबी सदाओं का भरते हो साहिबो हर लम्हा अपनी जाँ से गुज़रते हो साहिबो क्या जाने क्या है बात कि हर सम्त भीड़ में अपना ही चेहरा देख के डरते हो साहिबो तुम भी अजीब लोग हो काँटों की राह से कैसे लहूलुहान गुज़रते हो साहिबो इक अजनबी सी आग है जल के इस में आज किस ज़िंदगी की खोज में मरते हो साहिबो क्या जाने किस गुहर की तुम्हें जुस्तुजू है क्यूँ दरियाओं में लहू के उतरते हो साहिबो इतना भी फूँक फूँक के रखते नहीं क़दम अब कुंज-ए-आफ़ियत से भी डरते हो साहिबो अब ये ज़मीन भी न ख़लाओं की हो शिकार क्यूँ अपने आसमाँ से उतरे हो साहिबो