दम-ए-मर्ग बालीं पर आया तो होता मिरे मुँह में पानी चुवाया तो होता ये सच है वफ़ादार कोई नहीं है किसी दिन मुझे आज़माया तो होता तसल्ली न देता तशफ़्फ़ी न करता मिरे रोने पर मुस्कुराया तो होता मुझे अपनी फ़ुर्क़त से मारा तो मारा दम-ए-नज़अ' मुखड़ा दिखाया तो होता ग़लत है कि मुर्दा नहीं ज़िंदा होता तू मेरे जनाज़े पर आया तो होता वहीं चौंक उठता मैं ख़्वाब-ए-लहद से मिरा शाना तू ने हिलाया तो होता हुआ ईद के दिन मैं क़ुर्बान तुझ पर बुला कर गले से लगाया तो होता मिरे क़त्ल पर तुम ने बीड़ा उठाया मिरे हाथ का पान खाया तो होता वो सुनता न सुनता हवस तो न रहती मिरा हाल हमदम सुनाया तो होता मिसी पर भी दाग़ों का समरा न पाया चराग़ इक लहद पर जलाया तो होता गिला है मुझे तुम से मुर्ग़ान-ए-गुलशन कभी दर्द मेरा बटाया तो होता कभी मेरे जानिब से परवाज़ करते कोई हाल-पुर्सी को आया तो होता नहीं ये भी शिकवा न आए न आए गुलों को मिरा ग़म सुनाया तो होता दर-ओ-बाम का 'बहर' ख़्वाहाँ नहीं मैं मिरे आशियाने में साया तो होता