दम-ए-सुब्ह आँधियों ने जिन्हें रख दिया मसल के वही नन्हे नन्हे पौदे थे घने दरख़्त कल के नए साथियों की धुन में तिरी दोस्ती को छोड़ा कोई तुझ सा भी न पाया तिरे शहर से निकल के वही रस्म-ए-कम-निगाही वही रात की सियाही मिरे शहर के चराग़ो यहाँ क्या करोगे जल के नए ख़्वाब मेरी मंज़िल तह-ए-आब मेरा साहिल तुम्हें क्या मिलेगा यारो मिरे साथ साथ चल के सर-ए-शाम आज कोई मिरे दिल से कह रहा है कोई चाँद भी तो निकले कोई जाम भी तो छलके ये जो घर लुटा लुटा है ये जो दिल बुझा बुझा है इसी दिल में रह गए हैं कई आफ़्ताब ढल के ये मुशाहिदा है मेरा रह-ए-ज़िंदगी में 'बासिर' वही मुँह के बल गिरा है जो चला सँभल सँभल के