दर-ए-निगार से जो हम-कनार गुज़री है वो शाम हो कि सहर ख़ुश-गवार गुज़री है ख़िज़ाँ के हाथ से जो लुट चुका हज़ारों बार उसी चमन से सहर मुश्क-बार गुज़री है तिरे नफ़स से जहाँ मुश्क-बार गुज़री है वहीं हयात बड़ी ख़ुश-गवार गुज़री है रह-ए-हयात में ऐसे भी कुछ मक़ाम आए तुम्हारी चश्म-ए-इनायत भी बार गुज़री है जिस आन अहल-ए-जुनूँ अपनी आन पर हैं मिटे सवाद-ए-ज़ीस्त में वो यादगार गुज़री है भटकने वालों को मिलती नहीं जहाँ से राह वहीं से चश्म-ए-जुनूँ बार बार गुज़री है 'ज़ुबैर' ज़ौक़-ए-सफ़र अहल-ए-शौक़ का है जवाँ रह-ए-तलब में क़यामत हज़ार गुज़री है