हर तसल्ली रही नाकाम तो फिर क्या होगा बुझ गया दिल ही सर-ए-शाम तो फिर क्या होगा हर क़दम दार-ओ-रसन मंज़िल-ए-जानाँ है अब इश्क़ का हो यही अंजाम तो फिर क्या होगा मोरिद-ए-जुर्म ठहरते हैं फ़क़त अहल-ए-जुनूँ यूँही होते रहे बदनाम तो फिर क्या होगा सफ़र-ए-मंज़िल-ए-जानाँ तो है पैग़ाम-ए-अजल शौक़ का हो यही इनआ'म तो फिर क्या होगा जिस के आगे नहीं परवा-ए-मता-ए-दिल-ओ-जाँ अहल-ए-दिल पाएँ वो पैग़ाम तो फिर क्या होगा जिस पे ख़ुद को हैं लुटा बैठे 'ज़ुबैर' अहल-ए-तलब वही दावत जो हुई आम तो फिर क्या होगा