दर खोल के मत झाँकना हमदम मिरे अंदर उठ जाता है आहट पे भी मातम मिरे अंदर गूँजे हैं अभी तक किसी मक़्तूल की चीख़ें क़ाएम है अभी ख़ौफ़ का आलम मिरे अंदर मैं ज़द में फ़सादों की इक आया हुआ घर हूँ हर चीज़ है अब दरहम-ओ-बरहम मिरे अंदर अब कोई ख़ुशी मुझ में पनपती ही नहीं है आसेब की सूरत है तिरा ग़म मिरे अंदर मैं हिज्र का मारा हूँ सो होता है हर इक शाम सूरज की जुदाई पे भी मातम मिरे अंदर