दर्द बढ़ते बढ़ते आप अपना मुदावा हो गया आँख से आँसू बहे तो जी भी हल्का हो गया उन से क़ासिद सिर्फ़ ये कहना ब-सद इज्ज़-ओ-नियाज़ दर्द जो जाँ-बख़्श था अब जान-लेवा हो गया मैं ने ख़ुद से भी छुपाया था तिरी उल्फ़त का राज़ ऐ निगाह-ए-नाज़ तुझ पर कैसे इफ़्शा हो गया अपने बीमार-ए-मोहब्बत का करो तुम कुछ इलाज वर्ना फिर कहते फिरोगे हाए ये क्या हो गया बज़्म में 'अख़्तर' मुझी पर तो न थी उन की निगाह मैं ने उन आँखों में क्या देखा मुझे क्या हो गया