दर्द बन के कभी ग़म बन के सताता ही रहा अपने होने का वो एहसास दिलाता ही रहा वो ख़रीदार तो मुद्दत हुई आता ही रहा मैं दुकाँ हीरों की पलकों पे सजाता ही रहा हाए वो उस के जुदा होने का मंज़र यारब वो चला भी गया मैं हाथ हिलाता ही रहा गहरी तारीकी थी सन्नाटा था पर इक जुगनू रौशनी का मुझे एहसास दिलाता ही रहा हर नया दौर नए ले के चराग़ आया किया इक अंधेरा सा मगर ज़ीस्त पे छाता ही रहा मेरी बेज़ार तबीअ'त को सुकूँ मिल न सका यूँ तो हर रोज़ तिरी बज़्म में जाता ही रहा न समझ पाया ये इंसान मज़ाहिब के हुसूल घर यहाँ भाई का ख़ुद भाई जलाता ही रहा अब के बादल को ख़ुदा जाने हुआ क्या ऐसा जब भी बरसा तो हरी फ़स्ल जलाता ही रहा सारा दिन उस के तसव्वुर से हुआ की बातें ख़्वाब बन के मिरी रातों को सजाता ही रहा शेर-ओ-फ़न उस का है मम्नून दबी आहों में अपने ग़म से मिरी ग़ज़लों को सजाता ही रहा वक़्त के साथ बदल जाता मैं लेकिन हर पल मेरा माज़ी मुझे आईना दिखाता ही रहा एक मा'सूम सा पाकीज़ा सा जज़्बा 'हैरत' जब भी बहका तो मुझे राह पे लाता ही रहा