दर्द की धूप से चेहरे को निखर जाना था आइना देखने वाले तुझे मर जाना था राह में ऐसे नुक़ूश-ए-कफ़-ए-पा भी आए मैं ने दानिस्ता जिन्हें गर्द-ए-सफ़र जाना था वहम-ओ-इदराक के हर मोड़ पे सोचा मैं ने तू कहाँ है मिरे हमराह अगर जाना था आगही ज़ख़्म-ए-नज़ारा न बनी थी जब तक मैं ने हर शख़्स को महबूब-ए-नज़र जाना था क़ुर्बतें रेत की दीवार हैं गिर सकती हैं मुझ को ख़ुद अपने ही साए में ठहर जाना था तू कि वो तेज़ हवा जिस की तमन्ना बे-सूद मैं कि वो ख़ाक जिसे ख़ुद ही बिखर जाना था आँख वीरान सही फिर भी अँधेरों को 'नसीर' रौशनी बन के मिरे दिल में उतर जाना था