दर्द-ओ-ग़म की क़ैद से राह-ए-मफ़र कोई नहीं ये वो घर है जिस की दीवारों में दर कोई नहीं रास्ते मसदूद होते जा रहे हैं भीड़ से आओ उस जानिब ही चलते हैं जिधर कोई नहीं क़त्ल चोरी आबरू-रेज़ी ख़सारे का बजट आज के अख़बार में अच्छी ख़बर कोई नहीं मसअलों की मार से चेहरे हैं मुरझाए हुए ऐसा लगता है जहाँ में बे-ज़रर कोई नहीं इस क़दर फ़िरक़ा-परस्ती हर गली हर मोड़ पर नफ़रतों के शहर में महफ़ूज़ घर कोई नहीं पूछती हैं ज़र्द आँखें मुफ़्लिसी की ओट से क्या सुनहरे ख़्वाब का अब नक़्श-गर कोई नहीं तोड़ कर रिश्तों के बंधन छोड़ जाते हैं सभी साथ देता है 'शराफ़त' उम्र भर कोई नहीं