दर्द-ओ-ग़म से दिल-शिकस्ता हो तो हो फिर पुराना ज़ख़्म ताज़ा हो तो हो भूक कहती है कि कासा थाम ले ज़र्फ़ कहता है कि फ़ाक़ा हो तो हो शहरों शहरों क़ातिलों की भीड़ है गाँव में कोई फ़रिश्ता हो तो हो ज़ालिमों के घर उजाला हो गया अपनी दुनिया में अंधेरा हो तो हो हम को करना है इलाज-ए-दर्द-ए-दिल उन की ख़ातिर गर मसीहा हो तो हो वो करेंगे अपने हक़ में फ़ैसला और संसद में तमाशा हो तो हो इस सदी के मीर-जाफ़र ढूँड लो चाहे इस में कुछ ख़सारा हो तो हो हम न अपना तर्ज़ बदलेंगे कभी हम से ये आलम कशीदा हो तो हो बात है 'इरफ़ान' ये इंसाफ़ की वो ख़फ़ा होता है तो क्या हो तो हो