दरमियाँ अपने अब वो बात नहीं पहले जैसे मुआमलात नहीं सारी महफ़िल पे है नज़र तेरी मेरी जानिब ही इल्तिफ़ात नहीं इश्क़ लाहक़ हुआ तो हो ही गया इस मुसीबत से अब नजात नहीं अहल-ए-मज्लिस सलामती तुम पर गुफ़्तुगू मेरी मुझ से बात नहीं ऐ ख़ुदा मैं तो बस यही समझा मैं नहीं तो ये काएनात नहीं आदमी की अजीब फ़ितरत है रिश्ते हैं और त'अल्लुक़ात नहीं जाने किस की दुआ में हूँ शामिल आज राहों में मुश्किलात नहीं है तो है तंग राह-ए-उम्र-ए-हयात लाख कहिए कि पुल-सिरात नहीं दस्तकें दे के थक गया 'आकिब' अब ये दिल शहर-ए-मुम्किनात नहीं