हम इश्क़ को फ़क़त इक तज्रबा समझते हैं इसे रदीफ़ नहीं क़ाफ़िया समझते हैं जो बात हम किसी महफ़िल में यूँ ही बोल आए बहुत से लोग उसे फ़ल्सफ़ा समझते हैं लिखे हैं अपने मुक़द्दर में इतने इश्क़ कि लोग हमारे शे'रों को सब इश्क़िया समझते हैं मुआमलात की तफ़्हीम भी ज़रूरी है बस इतनी बात तो हम शर्तिया समझते हैं ग़मों के बीच जो दिल नाम का जज़ीरा है हम उस जज़ीरे का जुग़राफ़िया समझते हैं न मुख़्लिसाना रवय्या न वालिहाना सुलूक हम ऐसे मिलने को इक हादिसा समझते हैं अब अपने बीच कहाँ ऐसे लोग हैं 'आकिब' जो सिर्फ़ बात नहीं नज़रिया समझते हैं