फ़िक्र-ए-बालीदा की नुदरत से निखरते हैं ख़याल और अगर ज़ेहन-ए-रसा हो तो सँवरते हैं ख़याल अक़्ल कब करती है फ़र्सूदा ख़यालों को क़ुबूल फ़िक्र बेदार अगर हो तो उभरते हैं ख़याल जिद्दत-ए-फ़िक्र से अफ़्कार को मिलती है नुमू हुस्न-ए-किरदार की राहों से गुज़रते हैं ख़याल ज़ह्न ख़ालिक़ है ख़यालात का तस्लीम मगर ज़ह्न पर सूरत-ए-इल्हाम उतरते हैं ख़याल सोहबत इक़बाल की अफ़्कार को देती है जिला उन की सोहबत में बहुत ख़ूब निखरते हैं ख़याल मुंतशिर ज़ह्न अगर हो तो नतीजा मालूम सूरत-ए-काह हवाओं में बिखरते हैं ख़याल ज़ह्न को फ़िक्र की तहरीक जो मिल जाए 'क़मर' महशरिस्तान की सूरत में गुज़रते हैं ख़याल