दरून-ए-ज़ात अज़िय्यत थी और तुम नहीं थे मुझे तुम्हारी ज़रूरत थी और तुम नहीं थे मैं ख़्वाब में तुम्हें यक-लख़्त छूने वाला था फिर उस के बाद हक़ीक़त थी और तुम नहीं थे इसी लिए तो मोहब्बत को फ़ौक़ियत दी है कि मेरे साथ मोहब्बत थी और तुम नहीं थे मैं चाह कर भी दर आता न था ख़यालों में मगर तुम्हें ये सुहूलत थी और तुम नहीं थे गुज़रने वाला नहीं था मगर गुज़ार लिया वो दिन कि जब हमें फ़ुर्सत थी और तुम नहीं थे