दरवेश हूँ जो गंज मयस्सर नहीं तो क्या दिल से ग़नी हूँ पास मिरे ज़र नहीं तो क्या लाखों सदा-ए-सूर हैं पाज़ेब-ए-यार में छम-छम का शोर फ़ित्ना-ए-महशर नहीं तो क्या सैलाब-ए-अश्क मौजा-ए-तूफ़ान-ए-नूह है आँखों में बंद सात समुंदर नहीं तो क्या रंग-ए-हिना से हाथ बुतों के हैं लाल लाल फिर ये हमारे ख़ून का महज़र नहीं तो क्या लाखों हैं मो'जिज़े लब-ए-जाँ-बख़्श-ए-यार में रश्क-ए-मसीह हैं वो पयम्बर नहीं तो क्या सर-ख़ुश हैं हम ख़याल में इक चश्म-ए-मस्त के साक़ी हमारे दौर में साग़र नहीं तो क्या मौज़ूँ-कलाम पाक-बयान ख़ुश-ख़याल है 'कैफ़ी' सुख़न-शनास सुख़नवर नहीं तो क्या