दश्त-ए-ग़म तन्हाई और वीरानी-ए-जाँ रह गया दोस्तो बस अब यही जीने का सामाँ रह गया मुख़्तसर होती गई कुछ इस क़दर शरह-ए-हयात मेरी पलकों पर फ़क़त इक अश्क लर्ज़ां रह गया उड़ चुके सारे परिंदे जा चुकी फ़स्ल-ए-बहार ज़र्द पत्तों से ढका वीरान मैदाँ रह गया उस की यादों को मिटा पाया न अपने ज़ह्न से जाने वाले का यही बस मुझ पे एहसाँ रह गया वो अधूरे गीत का मुखड़ा ही बन पाया 'मतीन' मैं उसे नग़्मा बनाता दिल में अरमाँ रह गया