दश्त-ओ-सहरा को भी वो मंज़र सुहाने दे गया और ज़बाँ पर पत्थरों की वो तराने दे गया मस्ख़ होने लग गए एहसास के चेहरे तमाम धूप के जलते हुए वो आशियाने दे गया दाम फैलाएगा कल अपनी हवस का बिल-यक़ीं आज तो वो ऐ परिंदे चंद दाने दे गया देखते हैं तेरे गीतों में तिरा चेहरा सभी दिल बहल जाएँगे जिन से वो बहाने दे गया वो रहा मसरूर महफ़िल में चराग़ों की मगर नाज़ हम को इन अँधेरों के उठाने दे गया ख़ूँ-चकाँ मंज़र दिया और ज़ह्र का दरिया दिया अपनी तक़रीरों में शो'लों के फ़साने दे गया शुक्रिया सद-शुक्रिया ऐ शाइ'र-ए-बिस्मिल कि तू दर्द से मामूर ग़ज़लें गुनगुनाने दे गया इस से बढ़ कर और क्या सौग़ात होगी ऐ 'क़मर' ज़ख़्म-ए-दिल दर्द-ओ-ख़लिश कितने ख़ज़ाने दे गया