दस्तार बचाता हूँ तो सर बच नहीं सकता इस कर्ब-ए-मुसलसल में हुनर बच नहीं सकता जो शाख़ अलग हो वो नुमू पा नहीं सकती दीवार से टूटा हुआ दर बच नहीं सकता जलते हुए सूरज से मुसाफ़िर ने कहा था अब तेरी तमाज़त से नगर बच नहीं सकता तू अक्स-ए-मआ'नी के समंदर का शनावर नज़रों से तिरी अहल-ए-नज़र बच नहीं सकता हर मोड़ पे मैं मद्द-ए-मुक़ाबिल हूँ 'सफ़ी' के बचता हूँ बहुत ख़ुद से मगर बच नहीं सकता