ख़स्ता हैं अज़िय्यत में हैं बीमार बहुत हैं कुछ दिन से तो हम ख़ुद से भी बेज़ार बहुत हैं बे-कैफ़ उदासी में ढले ख़्वाब सुहाने ता'बीर के लम्हों के तलबगार बहुत हैं गुलज़ार में ख़ारों पे गिरे अश्क सहर के शबनम के मुक़द्दर में भी आज़ार बहुत हैं वो दिल से नगीने को परख ही नहीं सकते अब जौहरी कम कम हैं ख़रीदार बहुत हैं बुनियाद में नफ़रत की कहीं ईंट लगी है दीवार के गिर जाने के आसार बहुत हैं दो रंग मोहब्बत में गवारा नहीं करते हम लोग उसूलों में वज़्अ-दार बहुत हैं ऐ इश्क़ पड़ाव पे कहीं दम न निकल जाए ऐ चारागरो रास्ते दुश्वार बहुत हैं दरवेश नहीं कोई 'सफ़ी' शहर-ए-हवस में वैसे तो यहाँ साहब-ए-दस्तार बहुत हैं