दौर-ए-गर्दूं में किसी ने मेरी ग़म-ख़्वारी न की दुश्मनों ने दुश्मनी की यार ने यारी न की हश्र का सौदा हुआ ज़ौक़-ए-जमाल-ए-दोस्त में हम ने बाज़ार-ए-जहाँ में कुछ ख़रीदारी न की क़हक़हों की मश्क़ से मैं ने निकाला अपना काम जब किसी ने क़द्र-ए-आह-ओ-नाला-ओ-ज़ारी न की कू-ए-जानाँ का पता दे कर मैं पहुँचा ख़ुल्द में मुझ से कुछ रिज़वाँ ने बहस-ए-नाजी-ओ-नारी न की वक़्त साए का अभी आया नहीं मग़रिब है दूर क्यों पसंद उस बर्क़-वश ने मशरिक़ी सारी न की जामा-ज़ेबों की नज़र भी दल्क़-ए-'अकबर' पर पड़ी शान ही कुछ और थी उस ख़िर्क़ा-ए-पारीना की