दयार-ए-बे-हुनर में ये हुनर बेचा नहीं मैं ने मैं बे-घर तो हुआ हूँ अपना घर बेचा नहीं मैं ने ज़रूरत तो रही है मुझ को भी अश्या-ए-दुनिया की मगर ख़ुद को कभी भी लम्हा-भर बेचा नहीं मैं ने मिरे सीने में जो पलता रहा है एक मुद्दत से किसी सूरत भी बचपन का वो डर बेचा नहीं मैं ने उसी को बेच डाला है ये जोबन भी जवानी भी ये अपनी आबरू को दर-ब-दर बेचा नहीं मैं ने जला हूँ उम्र-भर मैं इस तमाज़त में सर-ए-सहरा किसी सूरत भी ग़ुर्बत में शजर बेचा नहीं मैं ने समंदर से अदावत तो रही है आज तक 'तन्हा' समंदर का कोई लाल-ओ-गुहर बेचा नहीं मैं ने