दयार-ए-शब का मुक़द्दर ज़रूर चमकेगा यहीं कहीं से चराग़ों का नूर चमकेगा कहाँ हूँ मैं कोई मूसा कि इक सदा पे मिरी वो नूर फिर से सर-ए-कोह-ए-तूर चमकेगा तिरे जमाल का नश्शा शराब जैसा है हमारी आँखों से उस का सुरूर चमकेगा भरम जो प्यास का रक्खेगा आख़िरी दम तक उसी के हाथ में जाम-ए-तुहूर चमकेगा ये कह के दार पे ख़ुद को चढ़ा दिया मैं ने कि दार पर भी सर-ए-बे-क़ुसूर चमकेगा लुटे हुए हैं मगर हम अभी नहीं मायूस हमारे ताज में फिर कोह-ए-नूर चमकेगा तलाश करता है मुझ मुश्त-ए-ख़ाक में तू अबस ग़ुरूर होगा जभी तो ग़ुरूर चमकेगा मता-ए-फ़न से नवाज़ा गया है तुझ को 'फ़राग़' इसी से नाम तिरा दूर दूर चमकेगा