देख कर ये पुर-शिकन ज़ुल्फ़ें तिरी मारता है मार सर दीवार से वो निकालेंगे मिरे अरमान क्या उन को फ़ुर्सत ही नहीं अग़्यार से यूँ न छूटोगी क़फ़स से बुलबुलो तीलियों को काट दो मिंक़ार से कोई मिलता ही नहीं इस दौर में जो कि महरम हो तिरे असरार से इंतिहा ये है बुतों के शौक़ में कम नहीं रग रग मिरी ज़ुन्नार से जम्अ हो जाती है दीवानों की भीड़ वो गुज़रते हैं अगर बाज़ार से फ़र्क़ ये 'जौहर' मिटाना है हमें फूल से खेले है कोई ख़ार से