दिल ग़म के लिए मज़रा'-ए-ज़रख़ेज़ बहुत है और दश्त-ए-जुनूँ है कि ग़म-अंगेज़ बहुत है हम बर्ग-ए-ख़िज़ाँ-दीदा कोई ढूँड भी लाएँ लेकिन ये ज़माने की हवा तेज़ बहुत है पाबंद-ए-वफ़ा है कि छलकने से है माने पैमाना-ए-जाँ वर्ना तो लबरेज़ बहुत है क्या तर्ज़-ए-तकल्लुम से हमें उस के सरोकार अंदाज़-ए-तख़ातुब ही दिल-आवेज़ बहुत है इस आहु-ए-रम-ख़ुर्दा से मुश्किल है रह-ओ-रस्म वो शहर के लोगों में कम-आमेज़ बहुत है ऐ सुब्ह सितारों की तजल्ली में नज़र आ हंगाम-ए-शबाब अब तो सहर-ख़ेज़ बहुत है कुछ हम भी 'कफ़ील' ऐसे तकल्लुफ़ से गुरेज़ाँ कुछ उन को भी यूँ आदत-ए-परहेज़ बहुत है