धूप में हम हैं कभी हम छाँव में रास्ते उलझे हुए हैं पाँव में बस्तियों में हम भी रहते हैं मगर जैसे आवारा हवा सहराओं में हम ने अपनाया दरख़्तों का चलन ख़ुद कभी बैठे न अपनी छाँव में किस क़दर नादान हैं अहल-ए-जहाँ हम गिने जाने लगे दानाओं में सामने कुछ देर लहराते रहे फिर वो साहिल बह गए दरियाओं में इक यही दुनिया बदलती है 'फ़रोग़' कैसी कैसी अजनबी दुनियाओं में